पहले जब भी वनों में आग लगती थी, गांव के गांव आग बुझाने के लिए जुटते थे। लेकिन हमने जन भागीदारी खत्म कर दी है। वनों की नमी बरकरार रख और वन प्रबंधन में जन भागीदारी को जगह देकर ही हम पहाड़ों में लगने वाली वनाग्नि पर अंकुश लगा सकते हैं।
रिस्थितिको के बदलते हालात आने वाले समय में प्रचंड गर्मी का संकेत दे रहे हैं, क्योंकि फरवरी से ही धरती तपने लगी। जाहिर है, गर्मी को यह मार वनों को फिर से लाएगी। इस बार मामला इसलिए भी गंभीर है, क्योंकि शीतकालीन वर्षा ने मुंह मोड़ लिया था, जो वनों की मिट्टी में नमी बनाए पा रखती है और सतही तापक्रम को कम रखकर सरफेस फायर को बढ़ने नहीं देती। आने वाले समय में मात्र जल संकट ही नहीं बढ़ेगा, बल्कि इसका बड़ा असर वनों को आग से होते हुए गाड़-गधेरों के पानी पर भी पड़ने वाला है। बढ़ती गर्मी के कारण पतझड़ में पत्ते ज्यादा झरते हैं, जोआग का बड़ा कारण बन जाते हैं।
यह संकित मात्र अपने देश के लिए ही नहीं है, बल्कि अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी इसका असर दिखाई देना शुरू हो चुका है। अब तक चिली में 14,000 हेक्टेयर भूमि में लगी आग ने आतंक मचा रखा है। करीब 151स्थानों पर यह घटना घटी है इसके कारण 140 मील प्रति घंटे की रफ्तार से हवाएं भी चलने लगी, जो सरफेस फायर को कैनोपी फायर में बदल देती है और इससे बहुत बड़ा इलाका आग की चपेट में आ जाता है। वहां 13 लोगों की मौत हुई औरआग बुझाने वाले एक हेलीकॉप्टर को भी वनाग्नि ने लील लिया।
उत्तराखंड में अभी तक करीब 61 जगहों से आग लगने की खबरें आ चुकी हैं। अभी तक करीब 62 हेक्टेयर भूमि आग की चपेट में आ गई है। पिछले वर्ष 3,416 हेक्टेयर वन भूमि में आग लगी थी। ये शुरुआती संकेत हैं, तो जाहिर है कि आगामी प्रचंड गर्मी में ऐसी घटनाएं और बढ़ सकती है। दुनिया में तापक्रम के कारण होने वाले बड़े परिस्थितिको बदलाव ही ऐसी घटनाओं को बढ़ा रहे
वनों के लिए सुरक्षित माने जाने वाले तिब्बत पर भी आने वाले समय में अमेजन वनों के विनाश का असर पड़ने वाला है। अमेजन के वन तिब्बत से करीब 15,000 किलोमीटर दूर है,लेकिन देश व वन चाहे अलग हों, लेकिन अगर किसी एक देश की पारिस्थितिकी डावांडोल हुई. कारण बन जाती है। तो उसका असर दूसरे देशों पर पर पड़ता ही है। पिछले एक दशक में दुनिया की सांस का आधार माने जाने वाले अमेजन वन का बनाग्नि के कारण बड़ा नुकसान हुआ है। बनाग्नि से बचने के लिए सामूहिक रूप से कई कदम उठाने की जरूरत है। किसी भी वनाग्नि के पीछे सबसे बड़ा कारण बनों में घटती नमी होती है।
हमने 1980 में वन प्रबंधन को शुरुआत की थी और एक वन नीति बनाई थी, जिसका मूल उद्देश्य वनों की रक्षा करने के साथ, उन्हें बनाग्नि से भी बचाना था, लेकिन पूरे पांच दशकों में ऐसा कुछ नहीं हुआ कि हम गर्व से कह सके कि हमने वन नीति के बाद वन संरक्षण के बड़े कदम उठाए हैं। उसका बहुत बड़ा कारण यह है कि हमने वनों में जनभागीदारी शून्य कर दी है। पहले जब भी बनों में आग लगती थी, तब गांव के गांव आग बुझाने के लिए जुटते थे। एक गांव का दायित्व यदि आग बुझाना होता था, तो दूसरे गांव के लोग उनके लिए भोजन-पानी की व्यवस्था करते थे। लेकिन हमने जन भागीदारी वाली वन प्रबंधन को नोति खत्म कर दी।
वनों की प्रजातियां आज एक दूसरे संकट से भी जूझ रही हैं। पारिस्थितिकीय दृष्टिकोण से वन की परिभाषा में उन प्रजातियों का बेहतर स्थान होता है, जो संबंधित वातावरण के अनुकूल हो जो मिट्टी-पानी को जोड़ सकें और वहां की जलवायु के प्रति अनुकूल हो। आज सब बदल -गया है। हमने अपनी पूरी वन नीति में वनों की परिभाषण में जो सबसे बड़ी चूक की है, वह यह कि हमने स्थान विशेष के लिए वृक्षों को परिभाषित नहीं किया। उन्हीं वृक्षों के संरक्षण और उनको लगाने की बात जरूरी है.जो वहां की पारिस्थितिकी के अनुकूल हो।
इसमें प्रजातियों के सर्वाइवल प्रतिशत का ज्यादा मान नहीं होना चाहिए। असल में इसे ज्यादा महत्व देकर प्रजातियों को थोपने की कवायद ने प्रबंधन तंत्र को संकट में डाल दिया। पिछले तीन-चार दशकों में सागौन के बन ने पूरे हिमालय के तराई क्षेत्र को घेर लिया, जो यहां की स्थानीय प्रजाति नहीं थी। उत्तराखंड में अकेले आठ लाख हेक्टेयर भूमि में चौड़ के वन हैं, जिनमें बार-बार आग लग जाती है,
जिसे रोकना किसी के बलबूते की बात नहीं है। वनों में लगी आग से वन्य पशु-पक्षी का ती नुकसान होता ही है, वन भूमि भी लाल मिट्टी में बदल जाती है, जो वनस्पति की स्थानीय प्रजातियों को पनपने नहीं देती। एक चौड़ की औसत ऊंचाई 15 सौ से 18 सौ मोटर से ऊपर नहीं होनी चाहिए। लेकिन आज उसकी ऊंचाई 2,500 मीटर तक पहुंच गई है। साथ ही इसे एक हजार मीटर से नीचे नहीं होना चाहिए, लेकिन आज उसने निचले इलाकों में शाल के वनों को लील लिया है।
हमें सबसे पहले इन वनों में नमी को बरकरार रखने की कोशिश करनी चाहिए। वनों के बीच में जल छिद्र, ट्रेंज आदि से इस नमी को बरकरार रखा जा सकता है। शीतकालीन वर्षा लंबे समय तक सतही नमी को बनाकर रखेगी, तो इसका सीधा असर उस आग पर भी पड़ेगा, जो बिना रोक-टोक आगे बढ़ती चली जाती है। इसके अलावा वन पत्तियों को स्थानीय और आर्थिक उपयोग में लाने के लिए काम होना चाहिए। अगर यह स्थानीय लोगों की भागीदारी से होगा, तो शायद हम काफी हद तक आग पर अंकुश लगा सकेंगे।
हँस्को 2009-10 में एक प्रयोग किया था, जिसमें करीब 44 हेक्टेयर वन भूमि जल छिद्रों की कल्पना की गई थी। इस प्रयोग से प्राकृतिक वनों को वापसी तो हुई ही, साथ ही, नदी के पानी की वापसी भी हुई। इसमें नमी के कारण वनों ने आग नहीं पकड़ी। आज इस बात की बड़ी आवश्यकता है कि ऐसे प्रयोगों को बड़े आंदोलनों के रूप में वन क्षेत्रों में फैलाना चाहिए। जहां यह एक तरफ पानी समेटने का बड़ा कारण बनेगा, वहीं दूसरी तरफ दावानल को भी हरा पाएगा।
हमें नहीं भूलना चाहिए कि वनाग्नि की घटनाएं पिछले तीन दशक से ज्यादा बड़ी हैं। इसके बहुत बड़े कारण में एक हमारी प्रबंधन नीतियों का कमजोर होना भी है. क्योंकि मात्र वन विभाग से यह अपेक्षा नहीं की जा सकती कि वह इस वनाग्नि से निपट पाएगा। स्थानीय लोगों की भागीदारी बढ़ाना ही शायद हमारी सही वन नीति का हिस्सा होना चाहिए।