रूल्स फॉर फूल्स

यदि नेट में पर्याप्त बैलेंस हो, धंधा मंदा, कामकाज सुस्त, लेकिन तबीयत चुस्त हो, तो आदमी सोशल मीडिया में यह ज्ञान बांट भी सकता है और ले भी सकता है कि बाइक को भगाने से पहले उसकी पीठ पर एक अदद नंबर होना, जेब में लाइसेंस डला होना और सर पर हेलमेट धरा होना जरूरी है, वरना तगड़ी रसीद फट सकती है।

यह रसीद किसी बड़े आदमी की कटती है, तो इंसान उतना ही खुश होता है, जितना क्रिकेट में जिम्बाब्वे द्वारा ऑस्ट्रेलिया को हराने पर या किसी बड़ी कंपनी का दिवाला निकल जाने पर या किसी महाराज के चुनाव हार जाने पर।

ना ना, वह रूल तोड़ने की सजा मिलने पर खुश नहीं है, वह तो खुश किसी बड़े ऊंट के पहाड़ के नीचे आ जाने पर है। वरना हमने ट्रैफिक का नियम कब माना है। सड़क हमने हमेशा जेब्रा क्रॉसिंग से पचास मीटर पहले ही क्रॉस की है,

गाड़ी में बेल्ट हमने उसी दिन बांधा था, जिस दिन ड्राइविंग का टेस्ट दिया था और हेलमेट उसी दिन पहना था, जिस दिन बीमारी की छुट्टी लेकर सड़क पर घूम रहे थे। नियमों से तो वही चल सकते हैं, जो सलीके से रहते हों। सलीके से रहना हमारी फितरत ही नहीं है,

जिन्होंने ताउम्र चाय के छींटे टेबल पर और सब्जी की तरी शर्ट पर फैलाई है,

अखबार पढ़ने के बाद उसे खुले सांड की तरह ड्राइंग रूम में छोड़ा है। हम चाय को ‘फलूदा की तरह सुड़कने वाले, रोटी को नारियल की गिरी की तरह चपड़-चपड़ चबाने वाले और बुफे पार्टियों में एनकाउंटर के सामने खड़े होकर ही ‘खिचड़ा’ सटकने वाले नियमों से क्या खाकर चलेंगे? लेकिन हां जब कोई बड़ा आदमी नियम तोड़ने के चक्कर में कहीं फंसता है,

तो हम बड़े खुश हो जाते हैं। क्या करें? कुछ कुछ होता है।

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